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Saturday, September 27, 2025
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कोर्ट में ADM ने कहा- मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती, हाई कोर्ट ने उठाया प्रशासनिक क्षमता पर सवाल

“मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती” – कोर्ट में ADM का बयान, हाई कोर्ट ने उठाए गंभीर सवाल: क्या ऐसे अफसरों को सौंपी जा सकती है प्रशासनिक जिम्मेदारी?

नैनीताल। उत्तराखंड उच्च न्यायालय के हालिया फैसले ने राज्य की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर एक नई बहस को जन्म दे दिया है। हाई कोर्ट ने राज्य निर्वाचन आयुक्त और मुख्य सचिव को निर्देश दिया है कि वे यह जांच करें कि क्या ऐसे अफसर, जो अदालत में खुद स्वीकार करते हैं कि उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती, प्रभावी रूप से कार्यकारी पदों का संचालन कर सकते हैं?

यह मामला उस समय चर्चा में आया जब बृहस्पतिवार को मुख्य न्यायाधीश जी. नरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक मेहरा की खंडपीठ के समक्ष नैनीताल के समीपवर्ती बुढ़लाकोट ग्राम पंचायत की मतदाता सूची में बाहरी राज्यों के लोगों के नाम हटाने को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई चल रही थी।

कोर्ट के आदेश पर नैनीताल के एडीएम (प्रशासन) विवेक राय और कैंचीधाम की एसडीएम मोनिका अदालत में पेश हुए। सुनवाई के दौरान जब अदालत ने एडीएम राय से कुछ सवाल पूछे तो उन्होंने हिन्दी में उत्तर दिया और बताया कि उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती। इस स्वीकारोक्ति पर खंडपीठ ने सवाल उठाया कि क्या इस प्रकार की भाषा असमर्थता के बावजूद ऐसा अधिकारी कार्यकारी पद की संवेदनशील जिम्मेदारियों का प्रभावी ढंग से निर्वहन कर सकता है?

हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को दिए निर्देश

कोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए राज्य निर्वाचन आयुक्त और मुख्य सचिव को निर्देशित किया है कि वे इस विषय में जांच करें और यह तय करें कि क्या एडीएम स्तर का अधिकारी, जो अंग्रेज़ी भाषा नहीं जानता, प्रभावी प्रशासनिक नियंत्रण की स्थिति में है या नहीं।

पूर्व न्यायाधीश की आपत्ति: “हिन्दी है राजभाषा”

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी.सी. पंत ने इस निर्णय पर असहमति जताई है। उन्होंने कहा कि भारत और उत्तराखंड की राजभाषा हिन्दी है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद-348 का हवाला देते हुए कहा कि भले ही सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की कार्यभाषा अंग्रेज़ी है, लेकिन हिन्दी भाषी अधिकारियों की सहायता के लिए अनुवादक नियुक्त किए गए हैं।

न्यायमूर्ति पंत ने सुझाव दिया कि अदालत को इस मुद्दे पर सरकारी अधिवक्ता से सलाह लेनी चाहिए थी और अन्य न्यायाधीशों से परामर्श करना चाहिए था। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य सरकार को प्रमुख सचिव न्याय और विधि विशेषज्ञों से परामर्श कर इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (SLP) के माध्यम से चुनौती देनी चाहिए।

“संवैधानिक और भाषाई दायरे में सही है आदेश” – अधिवक्ता कार्तिकेय

इस बीच हाई कोर्ट के अधिवक्ता कार्तिकेय हरिगुप्ता ने न्यायालय के आदेश का समर्थन किया है। उन्होंने इसे पूरी तरह संवैधानिक मामला बताया और कहा कि अनुच्छेद348 के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की मूल भाषा अंग्रेज़ी ही मानी गई है। संसद में भी कार्य इसी भाषा में होता है।

उन्होंने उदाहरण दिया कि उत्तर प्रदेश में हिन्दी को हाई कोर्ट में लागू करने से पहले राष्ट्रपति की अनुमति ली गई थी। वहां 1969 में हिन्दी को अदालत की भाषा बनाया गया। इसी प्रकार मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान में भी क्षेत्रीय भाषाओं को अदालतों में आंशिक रूप से अनुमति मिली है। जबकि गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सुप्रीम कोर्ट ने क्षेत्रीय भाषा को अदालतों की कार्यभाषा बनाने के प्रस्तावों को खारिज कर दिया।

हिन्दी बनाम अंग्रेज़ी: एक पुराना सवाल फिर उठा

यह पहली बार नहीं है जब उत्तराखंड अदालत में हिन्दी भाषा को लेकर सवाल खड़े हुए हैं। अतीत में भी हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने यह मुद्दा उठाया था, जिसके बाद याचिकाओं के साथ हिन्दी अनुवाद अनिवार्य कर दिया गया। हालांकि, बहस और कार्यवाही अब भी मुख्यतः अंग्रेज़ी में होती है।

मामला सिर्फ भाषा का नहीं, प्रशासनिक दक्षता का भी है

अदालत के इस आदेश ने सिर्फ भाषा की बहस नहीं छेड़ी है, बल्कि यह भी स्पष्ट किया है कि प्रशासनिक जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए संप्रेषण (communication) एक महत्वपूर्ण तत्व है। जब उच्च न्यायालय या अन्य संवैधानिक संस्थाएं किसी अधिकारी से संवाद करती हैं, तो वहां भाषा का ज्ञान कार्य की प्रभावशीलता को सीधे प्रभावित करता है

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