बीएड की अनिवार्यता समाप्त होने से संकट में बीएड कॉलेज: घटती छात्र संख्या और कड़े नियमों से जूझते संस्थान
देहरादून। राज्य और देशभर के बीएड कॉलेजों के सामने इस समय अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। बेसिक शिक्षकों की भर्ती में बीएड की अनिवार्यता हटाए जाने और उसके स्थान पर डीएलएड को अनिवार्य योग्यता घोषित किए जाने से बीएड पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या में भारी गिरावट देखी जा रही है। वहीं दूसरी ओर, राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) और राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (नैक) द्वारा लगाए गए कड़े शैक्षिक मानकों ने कॉलेजों के संचालन को और भी चुनौतीपूर्ण बना दिया है।
छात्र घटे, मानक बढ़े—बीएड कॉलेजों पर दोहरी मार
बीते कुछ वर्षों में बीएड करने वाले छात्रों की संख्या में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। इसका सीधा संबंध सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश से जोड़ा जा रहा है, जिसमें बेसिक शिक्षकों की भर्ती के लिए डीएलएड या ब्रिज कोर्स को अनिवार्य कर दिया गया था। इस आदेश के चलते लाखों बीएड डिग्री धारक अभ्यर्थी अब बेसिक शिक्षक की भर्ती प्रक्रिया से बाहर हो चुके हैं।
वर्तमान में केवल वही छात्र बीएड में प्रवेश ले रहे हैं जो एलटी ग्रेड शिक्षक या प्रवक्ता बनने की तैयारी कर रहे हैं, जबकि पहले बेसिक शिक्षा में नियुक्ति की आशा में हजारों छात्र बीएड में दाखिला लेते थे। इस बदलाव का असर बीएड और एमएड संस्थानों की नामांकन दरों पर सीधा पड़ा है।
एनसीटीई के नए दिशा-निर्देश: नैक मूल्यांकन अब अनिवार्य
एनसीटीई ने शैक्षिक गुणवत्ता बढ़ाने के उद्देश्य से बीएड और एमएड कॉलेजों के लिए नैक मूल्यांकन को अनिवार्य कर दिया है। इसके अलावा, कॉलेजों को अब भूमि के स्वामित्व, भवन की स्थिति, एनओसी, सोसायटी रजिस्ट्रेशन और अन्य आवश्यक दस्तावेजों के साथ-साथ नैक से प्राप्त मूल्यांकन प्रमाणपत्र भी प्रस्तुत करना होगा।
एनसीटीई ने स्पष्ट निर्देश जारी किए हैं कि संस्थान अब तभी पाठ्यक्रम चला सकेंगे जब वे इन सभी मानकों को पूरा करेंगे। यह भी तय किया गया है कि सभी शिक्षण संस्थानों को छात्र उपस्थिति की जानकारी एनसीटीई की वेबसाइट पर नियमित रूप से अपलोड करनी होगी। इससे गैर-हाजिर छात्रों को डिग्री देने की परंपरा पर भी विराम लगेगा।
प्रदेश सरकार ने बीएड कॉलेजों के लिए एफडीआर (फिक्स्ड डिपॉजिट रसीद) की अनिवार्य राशि को पहले की तुलना में पांच गुना तक बढ़ा दिया है। इससे आर्थिक रूप से कमजोर संस्थानों पर और भी दबाव बढ़ गया है। कई कॉलेज इस शर्त को पूरा नहीं कर पा रहे हैं, जिससे वे संचालन में असमर्थ हो रहे हैं।
राज्य में ऐसे लगभग 20 बीएड कॉलेज हैं जिन्होंने एनसीटीई से मान्यता तो प्राप्त कर रखी है, लेकिन वे वर्षों से कक्षाएं संचालित नहीं कर पा रहे हैं। इनमें से कुछ संस्थान पूर्व में बीपीएड और एमपीएड पाठ्यक्रम चलाने के लिए मान्यता लेकर आए थे, परंतु उचित ढांचे और नामांकन के अभाव में संचालन शुरू नहीं कर पाए।
संकट में 100 से अधिक कॉलेजों का भविष्य
प्रदेश के चार प्रमुख विश्वविद्यालयों—हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय, कुमाऊं विश्वविद्यालय और सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा—से संबद्ध लगभग 112 राजकीय, निजी और स्ववित्तपोषित बीएड संस्थान संचालित हो रहे हैं। वर्तमान नीतिगत बदलावों और घटते नामांकन को देखते हुए कई संस्थानों के भविष्य पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
एनसीटीई की मंशा शैक्षिक गुणवत्ता को मजबूत करना
एनसीटीई का दावा है कि उसके सभी निर्देशों और कड़े मानकों का उद्देश्य शिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार लाना है। परिषद का मानना है कि डिग्री महज औपचारिकता न रह जाए, बल्कि इसके पीछे ठोस शैक्षणिक योग्यता और प्रशिक्षण हो। पूर्व में कई निजी संस्थानों पर बिना कक्षाएं संचालित किए भारी शुल्क लेकर डिग्री देने के आरोप लगे थे। एनसीटीई ने इस पर भी सख्ती दिखाई थी और निर्देश जारी किए थे कि केवल नियमित उपस्थिति दर्ज करने वाले छात्र ही शिक्षक बन सकेंगे।
बीएड पाठ्यक्रमों में आए इन नीतिगत बदलावों ने जहां एक ओर शिक्षण गुणवत्ता के स्तर को ऊपर उठाने की कोशिश की है, वहीं दूसरी ओर सैकड़ों शिक्षण संस्थानों के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार और नियामक संस्थाएं इन संस्थानों की वास्तविक समस्याओं को समझते हुए, एक संतुलित और व्यावहारिक समाधान की दिशा में कदम उठाएं, जिससे न केवल गुणवत्ता बनी रहे, बल्कि योग्य छात्रों और शिक्षकों का भविष्य भी सुरक्षित हो सके।