जज और वकीलों की ट्रोलिंग पर हाईकोर्ट सख्त, सरकार की चुप्पी पर जताई नाराज़गी; एसएसपी से मांगी रिपोर्ट
नैनीताल – उत्तराखंड हाईकोर्ट ने सोशल मीडिया पर जजों, वकीलों और एक अभियंता के खिलाफ चल रही ट्रोलिंग और घृणास्पद पोस्ट्स पर कड़ी नाराजगी जताते हुए सरकार की निष्क्रियता पर सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि इस प्रकार की ट्रोलिंग भारतीय नागरिक संहिता के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में आती है, फिर भी इस पर अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई, यह अत्यंत चिंताजनक है।
मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी. नरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक मेहरा की खंडपीठ ने गुरुवार को मामले की सुनवाई करते हुए नैनीताल के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) को निर्देश दिया कि वे मामले की गहराई से जांच कर आगामी सोमवार तक रिपोर्ट अदालत में प्रस्तुत करें।
दुष्कर्म प्रकरण की पृष्ठभूमि
मामला नैनीताल जिले में नाबालिग से दुष्कर्म के आरोप में गिरफ्तार अभियुक्त उस्मान अली से जुड़ा है। आरोपित के पुत्र, रिजवान खान, जो कि लोनिवि (लोक निर्माण विभाग) में अपर सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत हैं, का प्रशासन ने 5 मई को खटीमा से घनसाली (गढ़वाल) स्थानांतरण कर दिया।
इस स्थानांतरण आदेश को चुनौती देते हुए रिजवान खान की ओर से अधिवक्ता कार्तिकेय हरि गुप्ता ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। याचिकाकर्ता का पक्ष रखते हुए गुप्ता ने बताया कि स्थानांतरण न तो नियमानुसार किया गया और न ही इसके लिए उन्हें कोई पूर्व सूचना या कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। उनका आरोप है कि यह स्थानांतरण सामाजिक दबाव और ट्रोलिंग के कारण हुआ, न कि प्रशासनिक आवश्यकता के आधार पर।
सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग और घृणास्पद पोस्ट्स
अदालत के समक्ष यह भी प्रस्तुत किया गया कि स्थानांतरण आदेश जारी होने से पूर्व ही यह आदेश कुछ हिंदूवादी नेताओं द्वारा इंटरनेट मीडिया पर साझा कर दिया गया था। इसके साथ ही, संबंधित अभियंता, उनके अधिवक्ता और न्यायालय के विरुद्ध आपत्तिजनक एवं घृणास्पद पोस्ट्स सोशल मीडिया पर प्रसारित की गईं।
कोर्ट को फेसबुक पोस्ट्स भी दिखाई गईं, जिनमें जजों और अधिवक्ताओं के प्रति असम्मानजनक भाषा का प्रयोग किया गया था। याचिकाकर्ता पक्ष ने कहा कि इस ट्रोलिंग और प्रचार का उद्देश्य याचिकाकर्ता और उनके परिवार को मानसिक रूप से प्रताड़ित करना और स्थानांतरण को न्यायोचित ठहराना था।
कोर्ट ने कहा कि सोशल मीडिया पर न्यायिक प्रक्रिया, जजों और अधिवक्ताओं के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करना न केवल न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचाता है, बल्कि यह कानूनी रूप से दंडनीय अपराध भी है। अदालत ने यह भी कहा कि इस तरह के मामलों में सरकार की निष्क्रियता बेहद चिंताजनक है।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे स्थानांतरण आदेश, जो सार्वजनिक दबाव या घृणास्पद अभियानों के प्रभाव में जारी किए जाते हैं, वे कानून के अनुसार टिक नहीं सकते। न्यायालय ने प्रशासनिक स्थानांतरण से पहले उचित जांच को अनिवार्य बताया और कहा कि इसके बिना कोई भी स्थानांतरण आदेश मनमाना माना जाएगा।
तबादले की वैधता पर सवाल
अधिवक्ता गुप्ता ने कोर्ट को बताया कि उत्तराखंड स्थानांतरण अधिनियम, 2017 के अनुसार, प्रशासनिक आधार पर स्थानांतरण से पहले संबंधित कर्मचारी के विरुद्ध जांच की जानी चाहिए। लेकिन इस मामले में न तो कोई जांच हुई, न ही कोई कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। इसके विपरीत, स्थानांतरण आदेश में याचिकाकर्ता को ‘काम के प्रति लापरवाह’ बताया गया, जबकि उनकी सेवा रिकॉर्ड में उनकी कार्यक्षमता और समर्पण को ‘उत्कृष्ट’ बताया गया है।
गुप्ता ने यह भी प्रश्न उठाया कि पिता के विरुद्ध दुष्कर्म का मामला दर्ज होने के कुछ ही दिनों बाद, पुत्र की प्रशासनिक छवि पर नकारात्मक प्रभाव कैसे पड़ा, जबकि उसे पहले कभी किसी भी प्रकार की अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ा।
राज्य सरकार की ओर से महाधिवक्ता एसएन बाबुलकर और मुख्य स्थायी अधिवक्ता चंद्रशेखर रावत ने कोर्ट को बताया कि स्थानांतरण आदेश नियमानुसार पारित किया गया है। उन्होंने कहा कि प्रशासनिक कार्यों में न्यायालय को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब तक कि कोई स्पष्ट दुर्भावना न हो।
कोर्ट ने वर्तमान में याचिकाकर्ता को कोई तात्कालिक राहत नहीं दी और मामले की अगली सुनवाई सोमवार के लिए निर्धारित कर दी है। साथ ही, एसएसपी नैनीताल को निर्देश दिया कि वे सोशल मीडिया ट्रोलिंग की जांच कर विस्तृत रिपोर्ट अदालत के समक्ष पेश करें।